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जयप्रकाश भारती की एक प्रसिद्ध कविता है-
राजा रानी
एक थे राजा एक थी रानी
दोनों करते थे मनमानी
राजा का तो पेट बड़ा था
रानी का भी पेट बड़ा था
खूब थे खाते छक छक कर
फिर सो जाते थक -थककर
काम यही था बक-बक-बक
नौकर से बस झक-झकझक
आठ पंक्तियों की इस छोटी सी कविता है खूबी है कि आसानी से जबान पर चढ़ जाती है।
तीन-चार साल की नन्हीं उम्र में ही अगर बच्चों को कहानी कविता सुनने के अवसर मिले हैं तो उनके लिए राजा, रानी नाम अपरिचित नहीं रह जाते। अगर वे राजा रानी नामों से परिचित नहीं भी हैं तो इस कविता में जिस नाटकीय ढंग से राजा रानी आए हैं, वह सहज ही उनके भीतर कौतुहल पैदा कर देता है कि वे पूछें-‘ये राजा रानी कौन हैं? या राजा रानी क्या होते हैं? ये दिन भर खाते क्यों रहते हैं? ये सच में दिन भर सोते रहते हैं क्या? ये नौकर से बकबक क्यों करते हैं? हो सकता है वे कुछ ना पूछें और केवल तुकबंदी का ही मजा लें और बार-बार बोलने लगें- छक छक कर, थक थक कर, बक बक बक, झक झक झक। कविता में शब्दों का जिस तरह से इस्तेमाल हुआ है उससे नाटकीय स्थितियों का चित्र आँखों के आगे नाचने लगता है। बच्चों के लिए राजा रानी के बड़े-बड़े पेट की कल्पना कर लेना मुश्किल काम नहीं है। ना ही यह कल्पना करना कि नौकर को कैसे डाँटते होंगे-झक झक झक। यानी उल्टा-पुल्टा कुछ भी कहते होंगे। वैसे ही जैसे उन्हें अक्सर बड़ों से सुनने को मिलता रहता है। वे अपने अनुभवों से जोड़कर इस बात को बड़ी आसानी से देख लेंगे। कविता के वाक्यों का विन्यास खिलंदड़ेपन वाला है, बच्चों के मन के अनुकूल है। माने कविता में बहुत कुछ है जिसे पढ़ते-सुनते हुए बच्चों को मजा आए।
एक बार एक राज्य की प्राथमिक कक्षाओं की पाठ्य पुस्तक निर्माण समिति का मैं सदस्य था। कक्षा दो की भाषा की किताब के लिए मैंने इस कविता को पाठ्यक्रम में रखने की अनुशंसा की। समिति की एक सदस्या ने इस कविता की अनुशंसा को खारिज कर दिया। उन्हें कविता में राजा-रानी शब्द से ही आपत्ति थी। ये उन्हें पुराने जमाने की चीज लग रहे थे। मेरा कहना था कि ‘पुराने जमाने के होने के बावजूद इस कविता में ये दोनों पात्र उपभोक्तावादी ऊब और निठल्लेपन को अभिव्यक्त कर रहे हैं। और क्या बच्चों को जो पुराना है, जो इतिहास की बात हो गई है, उससे परिचति नहीं होना चाहिए, अगर वह मजेदार ढंग से प्रस्तुत हुआ है?’ वे अच्छे पद पर थी शायद इसीलिए एक झटके से बोलीं-‘नहीं नहीं नहीं नहीं।’ हालाँकि इतने ‘नहीं-यों’ के लिए उनके पास तर्क कोई नहीं था। तर्क था तो केवल इतना ही उन्हें ये सब नहीं पसंद।
उनकी एक आपत्ति इस कविता में ‘नौकर’ के शब्द के इस्तेमाल को लेकर थी। उनके हिसाब से बच्चों की कविता में ‘नौकर’ शब्द नहीं आना चाहिए। क्योंकि वह समाज में व्याप्त हायरार्की /श्रेणीकरण को प्रकट करता है। उन्हें लगा कि बच्चों को अभी से नहीं सिखाना चाहिए यह सब। वे बोलीं-‘बच्चों को ये सब ऊँच-नीच, जाति पाँति, धर्म-सम्प्रदाय के भेदभाव से दूर ही रखें तो बेहतर है।’ मैंने कहा कि बच्चा बचपन से ही अपने आसपास के वातावरण में इन सब बुराईयों को न केवल देख रहा है बल्कि झेल रहा है तब इन सब मुद्दों को पाठ्यक्रम में क्यों नहीं होना चाहिए? बल्कि यह कविता तो स्कूल में इन मुद्दों पर बातचीत के लिए अच्छे संदर्भ का काम करेगी। और फिर हम बच्चे को अच्छा अच्छा ही परोसते रहेंगे तो हम उसे एक ऐसी दुनिया को देखने वाला बनाएंगे जिसमें सबकुछ ठीक-ठाक है, उधर जीवन में वास्तविकताएं उसके सामने एक ऐसी दुनिया को खोल रही होंगी जहाँ सब कुछ अच्छा अच्छा सा नहीं है। सभी लोग भले, मददगार, खुशी से रहने वाले नहीं है।
हम बच्चे पर भरोसा करें उसके विवेक पर भरोसा करें। वास्तविकताओं से उन्हें अवगत करायें। तार्किक ढंग से सोचने में उसकी मदद करें। साहित्य का काम सच्चाई से आँख चुराना नहीं सच्चाई को अभिव्यक्त करना है।
वे बोली -‘नहीं नहीं नहीं।’
मुझे उनकी ‘नहीं नहीं नहीं’ में ऐसी ही कविता नजर आई, जैसी ये कविता है।
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